Tuesday 31 March 2009

राजस्थान दिवस: सूर्यकिरण




राजस्थान दिवस(Rajasthan Day): सूर्यकिरण ने किया रोमांचित जयपुर। गुलाबी नगर के नीले आसमान पर आज लडाकू विमानों (Fighter Planes)की कलाबाजियों के साथ हवा में धुएं के गुबार से बने तिरंगे की छवि ने जयपुरवासियों को रोमांचित कर दिया।

आधुनिक राजस्थान की स्थापना के साठ बरस पूरे होने पर भारतीय वायुसेना की विख्यात सूर्य किरण टीम Indian Air force) के जाबांज पायलटों ने करीब बीस मिनट तक चले एयर शो के दौरान यह करिश्मा दिखाया। राजस्थान विश्वविद्यालय के खेल मैदान पर एकत्रित जनसमूह के साथ अपने घरोंं की छतों पर खडे लोगों ने कौतूहल से इसका नजारा देखा।

जयपुर एयरपोर्ट से उडान भरने वाली इस एयरोबेटिक टीम (Arobatic Team)के छह विमानों ने शाकवेव, फिनिक्स, यंकीवेज तथा टेंगों फार्मेशन के तहत अपनी कलाबाजियां दिखाई। राजस्थान दिवस समारोहों की श्रंखला में सुबह सेन्ट्रल पार्क में स्पिक मैके के सहयोग से विख्यात संतूरवादक पं. शिव कुमार शर्मा के पुत्र राहुल शर्मा ने संतूरवादन से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।

जयपुर घराने के पं. भवानीशंकर ने पखाबज तथा मुकंद राज देव ने तबला वादन किया। जवाहर कला केन्द्र में स्कूली बच्चों के लिए चित्रकला प्रतियोगिता आयोजित की गई। शाम को बिडला सभागार में मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास पर आधारित नाटक रंगभूमि का मंचन किया गया।

Monday 30 March 2009

Child Marriage – A Shameful Saga of Modern India

गुaे-गुडियों से खेलने की उम्र में ही वो मासूम मां (child mother)बन गई। पति ने ठुकरा दिया। भाई के पास देने के लिए भी कुछ नहीं है। 13 वर्ष की मासूम गीता नवजात ब“ाी को गोद में लिए एक आशियाना (Homeless poor )ढूंढ रही है। बूंदी (Bundi,Rajasthan) जिले के कंवरपुरा गांव की रहने वाली गीता लोगों की मदद की आस पर जीवन बसर कर रही है। दुगुनी उम्र के पति ने छोड दिया और आर्थिक रूप से तंगहाल (Financially Broke) गीता के पास दुधमुंही बेटी की जरूरत पूरी करने के लिए कुछ नहीं है। हमने उठाई है गीता की आवाज।

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Wednesday 25 March 2009

KCK Award for Print Journalism

Entries open for Second International KCK Award, for print journalism

Patrika group, one of the most prestigious media groups of the country has announced the second International KCK Award. The theme of KCK 2008 is 'Terrorism and Society'. This annual award, in the sanctified memory of Karpoor Chandra Kulish, is aimed at recognizing efforts of thought leaders in media, journalist's outstanding contributions to upholding professional values as well as protecting and promoting ethics and morality, right and freedom of the people for better quality of life.
Winning team would be awarded US $ 11,000. One medal and a certificate shall be awarded to each team member. The trophy and prize money shall be awarded to the institution or team leader (in case of independent team) on behalf of the team. Apart from this, 10 entries shall also receive special mention and would be awarded certificate & a medal.
The Second KCK Award for excellence in print journalism will be open to those who have authored and published the most compelling news-stories in media contributing to changing the lives and meeting the aspirations of people. The world media, in particular the print media, assumes a crucial role when it comes to handling the most critical situations. It assumes high level of responsibility when it comes to reporting events of sensitive significance. The central point of this award is that journalists accomplish their work through a narrative duality. During everyday news, journalists apply a professional narrative that represents a balance between their core journalistic values and the social pressures from their working world. In the first KCK established in year 2007, ‘Dawn’ from Pakistan and ‘Hindustan Times’ were declared the joint winners.

There is no entry fee for the award. Entries should be based on published news between 1st January 2008 to 31st December 2008. The last date for the award entries is 31st January 2009. More detail of the Award could be fetched from www.patrika.com .Awards are restricted to Print Media only.

Saturday 21 March 2009

माध्यम

बीच के क्षेत्र को मध्य कहते हैं। जहां दूरी दिखाई पडे, तो उसे पाटने के लिए माध्यम की आवश्यकता पडती है। वह साधन भी हो सकता है, व्यक्ति भी, अथवा प्रकृति का कोई तत्व भी। व्यवहार मूलत: दो तरह का होता है-प्रत्यक्ष एवं परोक्ष। परोक्ष व्यवहार में माध्यम की भूमिका प्रमुख हो जाती है। मध्यस्थता करने वाले को भी माध्यम ही कहा जाता है। इसी प्रकार जीवन को समग्रता से देखा जाए तो समझ में आएगा कि जीवन भी माध्यम के सहारे ही चलता है। चाहे कर्म के माध्यम से, भाग्य के माध्यम से अथवा निमित्त के माध्यम से।


मध्य क्षेत्र सदा गतिमान रहता है। दोनों आस-पास के पृष्ठ में रह जाते हैं। मन, प्राण और वाक् में प्राण ही मन और वाक् की गति का कारण बनता है। ऋक्-यजु-साम में भी यजु ही माध्यम बनता है। सत-रज-तम के त्रिगुण भी रज पर ही आधारित हैं। यदि जयपुर से दिल्ली जाना हो तो बस या रेल ही गतिमान माध्यम रहता है। जयपुर-दिल्ली तो पृष्ठभूमि में रहते हैं। लडके-लडकी की शादी की बात में मां-बाप भी पृष्ठभूमि में रहते दिखाई पडते हैं। दो लोगों के बीच संवाद में शब्द ही माध्यम है। वही गतिमान रहता है। माध्यम ही लक्ष्य तक पहुंचाने का हेतु बनता है। अत: माध्यम बनाए भी जाते हैं और संयोगवश बनते भी हैं। शरीर स्वयं एक माध्यम है। बुद्धि और मन भी माध्यम है। वायु एवं आकाश भी माध्यम का कार्य करते हैं।


माध्यम दो प्रकार के होते हैं। एक, माध्यम स्वयं कार्य करता है। दो, जब माध्यम स्वयं कार्य नहीं करता, कार्य निष्पत्ति के लिए मार्ग देता है। दोनों के भेद भी महत्वपूर्ण हैं। भूमिका भी भिन्न-भिन्न हैं। प्रकृति स्वयं अदृश्य रहती है। इसके कार्य भी अदृश्य रहते हैं। अनुभूति मात्र होती है। कार्यो का निष्पादन प्राणों के माध्यम से होता है। प्राण ही देवता है। कौन पकड पाया है प्राणों कोक् यही प्राण पिछली पीढी से आकर हमारे शरीर में होते हुए अगली पीढी का निर्माण (उत्पन्न) करते हैं। हम भी तो माध्यम ही हैं। किसी देवयोग से कोई इच्छा अनायास ही हमारे मन में उठती है और हम उस कार्य को बिना सोचे-समझे तुरन्त कर डालते हैं। प्रारब्ध भी हमसे इसी तरह कार्य कराता है। यही हाल विभिन्न ग्रहों के योग का है। जीवन में हम स्वयं बहुत बडे माध्यम का कार्य करते हैं।


आज तो रेडियो-टीवी-अखबारों को ही माध्यम कहा जाने लगा है। ये तो बहुत ही स्थूल माध्यम हैं। इनकी जानकारियां अन्तस को इतना प्रभावित भी नहीं करतीं। इतना मनोयोग से और लोकहित में कोई लिखता ही नहीं। जो जानकारियां इनसे प्राप्त होती हैं, वे बाहरी जीवन से जुडी होती हैं। समय के साथ बदलती भी जाती हैं। इनमें स्थायित्व नहीं होता। जीवन के शाश्वत सत्य तो आज धर्मो में भी तोड-मरोडकर पेश किए जाते हैं। इसीलिए जीवन विषैला होता जा रहा है। जहां तक बन पडे व्यक्ति को ऎसे माध्यमों से दूर ही रहना चाहिए। भले ही आकर्षित करते हों। मन में संकल्प कर लेना चाहिए कि विषपान नहीं करेंगे।


माध्यम चूंकि मध्य में होता है, अत: दो भिन्न धरातलों के बीच सेतु का कार्य भी करता है। मां को ही देख लें। बच्चे और पिता के बीच कितनी बार माध्यम बनती है। दो पीढियों के बीच की दूरी कम करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पत्नी जीवन में एक अतीव महत्वपूर्ण माध्यम होती है। पहले पति को प्रेम करना सिखाती है। उसे शान्त रहना सिखाती है। कालान्तर में वही पति के मन में विरक्ति का भाव भी पैदा करती है। ताकि वह ईश्वर की ओर मुड सके। प्रेम की दिशा बदलना उसके जीवन का बडा हेतु है। इसके बिना कोई व्यक्ति आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकता। पत्नी के माया भाव में ही यह शक्ति है। अन्य महिला यह कार्य नहीं कर सकती। वह तो विपरीत दिशा में ले जाएगी।
आत्मा और ईश्वर के बीच माया ही कार्य करती है। व्यक्ति भी माया भाव के कारण ही आत्मा से दूर जीता है। माया हमको माध्यम मानकर हमारा उपयोग करती है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपने पुरूषार्थ के सहारे माया से कितना संघर्ष कर सकते हैं। आवरण हटा सकते हैं। आजकल तो माध्यम भी नकारात्मक भाव में दिखाई देने लगा है। हम लोगों को अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए "मोहरा" बनाते हैं। व्यापार हो या शासन "मोहरों" के माध्यम से कार्य करवाना आज की परम्परा बन गई है। यह लोक शोषण का भाव है। माध्यम की अवधारणा में गरिमा का भाव है। टकराव टालने का भाव भी है। विकट परिस्थितियों को टालने के लिए संभ्रांत लोगों से मध्यस्थता कराई जाती रही है। दूत और दूतावास की भी यही अवधारणा है।


माध्यम की अवधारणा में एक महत्वपूर्ण पहलू है कत्ताü और निमित्त भाव का। माध्यम के कारण दोनों पक्षों का कत्ताüभाव जाता रहता है। अहंकार को स्फीत होने का अवसर नहीं मिलता। मध्यस्थता करने वाला भी निमित्त बनकर कार्य करता है। माध्यम जीवन में सहारा भी बनता है। हर व्यक्ति या वस्तु की सीमा होती है। हर व्यक्ति हर कार्य नहीं कर सकता। फूल में सुगंध है, फैला नहीं सकता। हवा माध्यम बनती है। पूरे वातावरण में सुगंध व्याप्त हो जाती है। सभी साधन, सुविधाएं हमारे माध्यम हैं। लेकिन भौतिक माध्यमों का मूल्य अघिक नहीं होता। जीवन को सार्थकता देने वाले माध्यम सर्वोपरि होते हैं। इनमें मां और गुरू सबसे महत्वपूर्ण हैं। मां जीवन का स्वरूप निर्माण करती है। गुरू गति प्रदान करता है। आज मां केवल बाहरी जीवन का निर्माण कर रही है। इसीलिए बच्चे बडे होकर दूर चले जाते हैं। मां को अकेले ही बुढापा काटना पडता है। गुुरू भीतर के विश्व से परिचय कराता है। स्वयं का स्वयं से परिचय कराता है। तभी जीवन सार्थक सिद्ध हो पाता है। इसके बिना जीवन में समष्टि भाव ही जाग्रत नहीं होता। अपने हित के आगे कोई देखना ही नहीं चाहता। यह संकुचन ही माया का बन्धन है। जीवन मुक्त होने के लिए है। इसके लिए प्रेम चाहिए। स्वार्थ में प्रेम नहीं रहता। देने के भाव से, सेवाभाव से, लोक कल्याण के भाव से प्रेम पल्लवित होता है। इसके लिए उपासना भी एक माध्यम बन जाती है। भक्ति भी प्रेम मार्ग ही है। पत्थर से भी प्रेम करना सिखा देती है। प्रेम के कारण ही पत्थर में भी भगवान दिखाई देता है।


हम जीवन में लाखों कार्य करते हैं। यह भी मानते हैं कि अपनी मर्जी से कर रहे हैं। क्या हम "मर्जी" को पैदा कर सकते हैंक् कभी नहीं। मर्जी तो मन में अपने आप पैदा होती है। जिस मर्जी को मन स्वीकार कर लेता है, वह मेरी मर्जी हो जाती है। मैं उस मर्जी को पूरा करने का माध्यम बन जाता हूं। मेरा जीवन तो मर्जी पैदा करने वाला चलाता है। कृष्ण कितने सहज भाव से कह गए-कत्ताüभाव मत रखो। निमित्त बन जाओ। सब कुछ मुझे अर्पण कर दो। गहराई से देखेंगे तो पता चल जाएगा कि हम कत्ताü बन ही नहीं सकते। चाहें तो स्वीकार कर लें अथवा नकार दें।

द्वन्द्व

जीवन का सच यह भी है कि व्यक्ति भीतर कुछ और सोचता है, कुछ और करना चाहता है, और कर भी नहीं पाता। जीवन की अनेक मर्यादाएं-चाहे परिवार की हों, जाति-धर्म या समाज की हों, उसे पग-पग पर रोकती-टोकती रहती हैं। शायद इससे बडा जीवन का द्वन्द्व और कुछ भी नहीं है। हम में से लगभग हर एक के साथ ही ऎसा होता होगा। व्यक्ति स्वयं तो आत्म रूप में है, किन्तु उसका शरीर भिन्न है। आत्मा प्रकृति के नियमों से बंधा रहता है, अपने कर्म-फल भोगने के लिए शरीर में आकर रहता है। शरीर का निर्माण माता-पिता करते हैं। वे अपनी सामाजिक भूमिका के आधार पर, जाति-धर्म के आधार पर शिक्षित करते हैं। स्कूल वाले कुछ और ही पढाते रहते हैं। भीतर जीव का इन सबसे कोई लेना-देना नहीं होता। बाल्यकाल में शरीर असहाय होता है, जीव कुछ कर नहीं पाता। उसे निर्देश मानने होते हैं। जीव समझता सब कुछ है। उसके साथ कौन क्या व्यवहार करता है, उसे भी देखता-समझता है। अपनी स्मृति में भी रखता है। तभी तो बडा होकर इसी आधार पर सबके साथ व्यवहार करता है। अपने सम्पूर्ण वातावरण के प्रति जीव पूर्ण जाग्रत रहता है। वह तो सोने वाला तžव नहीं है। किन्तु बचपन में उसे जो कुछ रटाया जाता है, उसी के सहारे जीने के लिए अभ्यस्त हो जाता है। जो कुछ लक्ष्य वह साथ लेकर आया है, वह तो भीतर ही दबा रह जाता है। जो कुछ ईश्वर अंश उसमें रहता है, उसे भी प्रस्फुटित होने का अवसर नहीं मिलता। उसका स्वयं का कोई विकास ही नहीं हो पाता। इसके लिए तो उसे भीतर देखना पडेगा। स्वयं को खोजना पडेगा। नहीं तो वह भीतर कुछ सोचता रहेगा, बाहर में कुछ और ही जीता रहेगा। वह कुछ बनना चाहता है, मां-बाप उसे कुछ और ही बना देते हैं। वह अपना भाग्य तो साथ लाता है, कर्म-फल भी भोगता है, किन्तु भविष्य निर्माण के लिए अपने को स्वतंत्र नहीं पाता। जो धर्म मां-बाप का है, उसे वही अपनाना है। व्यवसाय भी अघिकांशत: पिता का ही रहता है। समाज, देश-काल के नियम-कायदे भी उसे बांधकर रखते हैं। शिक्षा के कारण उसकी बुद्धि में एक नया अहंकार पैदा हो जाता है। इसी के आधार पर वह प्रकृति को भी चुनौति देने को तैयार हो जाता है। उसे याद नहीं रहता कि वह भी प्रकृति का ही एक अंग है। प्रकृति ने ही उसे यह शरीर दिया है।
जीव की एक दुविधा यह भी होती है कि वह मानव देह में कहां से आया। यदि मानव देह से ही आया है, तब तो बडा अन्तर नहीं पडेगा। कुछ भाषा का, कुछ संस्कृति का प्रभाव नया हो सकता है। यदि किसी अन्य प्राणी की देह से आया है, तो उसके सामने स्थितियां विकट होती हैं। उसे तो प्राकृतिक आवाजों को पहचानने के अलावा कुछ भी नहीं आता। इसको मानव सभ्यता सिखाना माता के लिए कठिन कार्य होता है। आज माताएं कहां समझ पाती हैं कि जीव कहां से आया है। कहां उसे संस्कारित करने का प्रयास करती हैं। वे तो केवल महीने गिनती रहती हैं। उन्हें तो यह भी नहीं पता कि जीव सब कुछ सुन-समझ रहा है। जीव जैसा आया, वैसा ही बाहर आ जाता है। उसे शरीर का भेद समझ में कहां आता है। इसे भी वह पहले जन्म की तरह ही स्वच्छन्द रूप में भोग कर चला जाता है।


विवाह होने तक जीव अकेला भी रहता है। सृष्टा नहीं बन सकता। जीवन की पूर्णता तो युगल-सृष्टि ही है। वहां उसे मन की गहराइयों की समझ आती है। प्रेम की डोर में बंधता है। नए सिरे से सुसंस्कृत होता है। तब धीरे-धीरे उसका भीतर प्रवेश होता है। यदि उसे प्रेम नहीं मिला तो उसका अहंकार हावी हो जाता है। भीतर का स्वरूप ओझल हो जाता है। यही प्रभाव अन्य भोगों का भी होता है। भौतिक सुखों के घेरे में भी वह बाहर ही जी सकता है।


तब बाहर और भीतर का द्वन्द्व तो और भी मुखर हो उठता है। बाहरी जीवन के इतने सारे मुखौटे उसे कचोटते रहते हैं। गहरी प्रतिक्रिया चलती रहती है। अनेक अवसरों पर वह मुखर भी हो उठता है। यही अपराध बोध होता है और यह ही अपराध भी कराता है। वह स्वतंत्रता के लिए भी छटपटाता है, किन्तु समाज के नियम और निषेध उसे घेरे रहते हैं। चाहते हुए भी इच्छा से जी नहीं पाता। उसका मन ग्लानि से सदा भरा रहता है। मन कुछ कहता है, बुद्धि कुछ और कहती है। जीवन में दो धरातल बने रहते हैं। दोनों एक दूसरे के शत्रु जैसे। जीवन का सुख तो भीतर-बाहर के संतुलन में है। आत्मा और शरीर के बीच सामंजस्य बना रहना चाहिए। तभी तो जीव मानव रूप में जी सकता है। अपने कर्म और लक्ष्य को परिभाषित कर सकता है। दोनों के धरातल यदि भिन्न रहे तो सुख कैसे मिल सकता है।


जब तक शरीर और जीव का एकरूप नहीं बनता, तब तक जीव केवल प्रारब्ध को ही भोगता है। उसी के अनुरूप शरीर का उपयोग करता रहता है। यदि पूरी उम्र भी यह एकात्म भाव नहीं आ पाता, तो पूरी आयु प्रारब्ध भोगकर ही चला जाता है। अन्य प्राणियों की तरह। मानव जीवन की पहचान तो कर्म से होती है। भविष्य का भी निर्माण कर्म से होता है। कर्म भी वर्तमान का ही होना पडेगा। आज हम कोई कार्य करते हैं, तब वर्तमान में रहते कहां हैक् मन कहीं और ही भटक रहा होता है। स्मृतियां पीछा नहीं छोडतीं। भावी सुरक्षा के पहलू घेरे रहते हैं। वर्तमान में केवल वही व्यक्ति जी पाता है जिसे भीतर आत्मा का आभास रहता है। जिसे नए कर्म करने की, अज्ञात को खोजने की जिज्ञासा होती है। साधारण मनुष्य अज्ञात से इतना डरता है कि उधर जाना ही नहीं चाहता। आत्मानुभूति ही उसके धर्म को जाग्रत करती है। तब जाकर उसके अर्थ और काम जीवन को सार्थकता दे पाते हैं। प्रारब्ध पर विराम लगाकर नए भविष्य का निर्माण करने में जुट जाता है। तब मन द्वन्द्वातीत हो जाता है।
उदाहरण के लिए एक व्यक्ति संत बन गया। कुछ व्रत स्वीकार कर लिए। कुछ काल बाद उसका मन ऊब गया। वह फिर से भोग का जीवन जीना चाहता है। ऎसा करना एकाएक संभव भी नहीं होता। वह बाहर धर्म को अभिव्यक्त करता है। भीतर में उसका मन प्रतिरोध करता है। उसे धर्म अब स्वीकार नहीं है। मन तो वैसे भी बार-बार बदलता रहता है। सुबह कुछ अच्छा लगता है, शाम को भूल जाता है। चंचल कहा जाता है। यह स्थिति तब तक बनी रहेगी, जब तक उसकी चेतना जाग्रत नहीं हो जाती। जब तक उसे कोई बडी ठोकर नहीं लग जाती। वैसे गुरू तो अब मिलते ही नहीं, जो एक-एक शिष्य को अलग से तैयार कर सके। आने वाली पीढियों के आगे यही सबसे बडी त्रासदी होगी। उसके जीवन का यह द्वन्द्व कभी घटने वाला नहीं है।

प्रारब्ध

प्रारब्ध

व्यक्ति का कर्म ही भाग्य का निर्माण करता है। भविष्य में प्राप्त होने वाले कर्म-फल को ही भाग्य कहा जाता है। पिछले संचित कर्मो के फल, जो वर्तमान में भोगे जाते हैं, उन्हे प्रारब्ध कहते हैं। जीव ही सारे कर्म करता है और उनके फल भोगता है। जीव स्वयं में क्या हैक् ईश्वर का अंश है। अत: सैद्धान्तिक दृष्टि से ईश्वर ही कत्ताü है और भोक्ता भी है। मानव जीवन कत्ताü रूप है और शेष योनियां भोक्ता रूप होती हैं। अत: कर्म के सारे सिद्धान्त केवल मानव जीवन पर ही लागू होते हैं। जीवन कर्म से कभी मुक्त भी नहीं हो सकता। यह तो जीवन का पर्याय है। कर्म होगा तो फल भी मिलेगा। फल आने पर ही कर्म की समाप्ति होती है।


कर्म का क्षेत्र उतना ही बडा है जितना कि एक सौ वर्ष का जीवन काल। कर्म ही मानव जीवन का मूल आधार भी है। पर्याय भी कह सकते हैं। हर कर्म का भी तो कुछ आधार होना चाहिए। कर्म का आधार होता है कामना। मन में कामना उठेगी, तभी तो व्यक्ति कर्म करने को प्रेरित होता है। इच्छा के बिना भी कुछ कर्म होते हैं। ये प्राकृतिक कर्म होते हैं। आहार, निद्रा, विसर्जन आदि प्राकृतिक कर्म हैं। शरीर धारण किए रहने के लिए आवश्यक होते हैं। शरीर संचालन के लिए श्वास-प्रश्वास, धडकन, तापमान आदि शरीर के कर्म भी प्राकृतिक कर्म ही हैं। शरीर को निरोग रखने के लिए भी शरीर नित्य कर्म करता रहता है।


कामना से जुडे कर्म इनसे भिन्न होते हैं। कामना ही क्षुधा कहलाती है, जिसे व्यक्ति तृ# करना चाहता है। यही जीवन में माया का प्रवेश द्वार है। वही कामना पैदा करती है। जीवन को कामना के माध्यम से माया ही चलाती है। व्यक्ति कहता तो है कि वह अपनी मर्जी से जीता है ; किन्तु यह भी सच है कि वह अपने मन में कामना पैदा नहीं कर सकता। उसकी मर्जी कामना पूरी करने या न करने तक सीमित है। प्रकृति को ही माया कहते हैं। हमारा मन, हमारी बुद्धि प्रकृति (त्रिगुण) से आवरित रहती है। उसी के अनुरूप मन में इच्छा पैदा होती है। उसी के अनुरूप बुद्धि मार्ग-दर्शन करती है।


माया आत्मा के निर्माण के साथ ही जुड जाती है। हर जन्म और हर योनि में प्रकृति साथ रहती है। पिछले सारे कर्मो का लेखा-जोखा देखकर, कर्म-फल के अनुरूप हमारे मन में इच्छा पैदा करने का काम माया का है। हमने किसी को देखा, सुन्दर लगा। आगे चल दिए। फिर किसी को देखा और पांव ठिठक गए। कोई पिछला हिसाब इसके साथ बाकी रहा होगा। वरना यहां से भी आगे चले जाते। इसके भीतर बैठी आत्मा को दृष्टा की आत्मा ने पहचाना। राग-द्वेष, मैत्री-शत्रुता आदि का अवसर मिलते ही, प्रकटीकरण हो गया। और फिर आगे बढ गए। यह सारी इच्छाएं प्रारब्ध से जुडी थीं। स्वयं व्यक्ति का बडा योग इसमें नहीं होता। हमारे सौ साल के कलैण्डर में प्रारब्ध साथ ही रहता है। व्यक्ति की उम्र का कारक भी प्रारब्ध ही होता है।


शरीर के साथ पिछली पीढियों के भी कुछ कर्म-फल हमें प्रारब्ध के रूप में प्राप्त होते हैं। पुरूष को पुरूष पीढियों से, नारी को अपनी नारी पीढियों से, कुछ इष्ट मित्रों से। जीव के साथ प्रारब्ध अनेक पीढियों से चलता ही रहता है। हमारा सबका पिता सूर्य है। वहीं से सृष्टि की शुरूआत भी है।
सूर्य से ही हमको ज्योति, आयु और गौ (जीवन विद्युत/ सविता) की प्राप्ति होती है। सूर्य परमेष्ठी मण्डल/ लोक के चक्कर लगाता है। परमेष्ठी के चारों ओर तप: लोक होता है। इसी तप: लोक में परमेष्ठी के पांच अन्य उपग्रह भी चक्कर लगाते हैं। उनका सर्वाघिक प्रभाव आत्मा पर पडता है। इनमें गुरू, शनि और ब्रrाणस्पति प्रमुख हैं। गुरू-शनि तो हमारे सौर मण्डल में भी हैं। ब्रrाणस्पति का रूप मंगल में दिखाई पडता है। ये तीनों ही ग्रह कुण्डली के दो-दो भावों को प्रभावित करते हैं। अन्य ग्रह केवल एक ही भाव को प्रभावित करते हैं। यूं तो सभी ग्रह सातवें भाव को भी पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। इसका अर्थ है कि सातवां भाव जीवन साथी का होता है। विवाह के बाद दोनों के प्रारब्ध को देखना भी आवश्यक हो जाता है। मूलत: सातवें भाव की कुण्डली ही जीवन साथी की कुण्डली होती है। जीवन साथी का प्रारब्ध ही व्यक्ति का पराक्रम बनता है। इसी प्रकार व्यक्ति का प्रारब्ध ही व्यक्ति के पराक्रम रूप में दिखाई पडता है। तभी तो पत्नी लक्ष्मी है।


कुण्डली में भाग्य का भाव नवां स्थान होता है। यही प्रारब्ध का स्थान भी है। भावी फल को भाग्य कहा है। किन्तु प्रारब्ध को समझने के लिए आत्मा के प्रतिनिघि, सूर्य के साथ गुरू, शनि एवं मंगल की उ“ा स्थितियों को मिलाकर देखना होता है। चूंकि परमेष्ठी लोक के इन उपग्रहों की जानकारी आम ज्योतिषी को नहीं रहती, अत: वह व्यक्ति के प्रारब्ध को समझ नहीं पाता। भाग्य तो वर्तमान जीवन के कर्म से बनता है। ये प्रारब्ध के साथ जुडता अवश्य है। तभी तो मानव जीवन में कर्म की प्रधानता है। व्यक्ति अपने प्रारब्ध को भी बदल सकता है और जीवन-मृत्यु के चक्र को भी।


जीवन में संस्कारों का महत्व इसी बात से समझ में आता है कि अच्छे संस्कार अच्छे काम की ओर व्यक्ति को ले जाते हैं। संस्कार से ही जीवात्मा मानव रूप व्यवहार करना सीखता है। ज्ञान अर्जन में जुटता भी है और ज्ञान का सही उपयोग भी कर सकता है। बिना संस्कार के जीव पशु-भाव में ही जीता है। केवल प्रारब्ध के सहारे। भाग्य निर्मित करने में सक्षम नहीं होता। तब गृहस्थाश्रम में माया जुडती है, इस निर्माण के लिए। सृष्टि रचना भी करवाती है और अपने प्रेम पाश के सहारे जीव को संस्कारित भी किया जाता है। वानप्रस्थ आते-आते माया तो सृष्टि क्रम से बाहर भी निकल जाती है। व्यक्ति सीख जाए तो ठीक है, वरना जो प्रारब्ध में लिखा है, फिर भोगने लगता है। सही अर्थो में सही गृहस्थाश्रम ही वानप्रस्थ के द्वार खोल सकता है। यहीं से व्यक्ति अपने व्यष्टि भाव को छोडकर समष्टि भाव में प्रवेश करता है। उसकी आंख प्रारब्ध से हटने लग जाती है। स्वयं के साथ-साथ वह दूसरों की चिन्ता भी करने लगता है। "स्व" का विस्तार करने लगता है। उसके मन की कामनाएं नए वातावरण के कारण बदलने लगती हैं। मन संकल्पवान होने लगता है। अर्थ की उपयोगिता भोग प्रधान नहीं जान पडती। उसकी आंखें धर्म का साक्षात्कार करना चाहती हैं।


जीवन क्या हैक् प्रारब्ध और भाग्य के बीच संघर्ष ही तो है। दोनों का ही कारक माया है। माया ने ही ब्रrा को ढका हुआ है। कामनाओं का घेरा ही माया है। व्यक्ति धर्म को समझते ही सबसे पहले अपने प्रारब्ध को तोडकर बाहर आ जाने का प्रयास करता है। प्रारब्ध ही माया है। माया हटी और ब्रrा प्रकट हुआ। दोनों एक ही हैं। माया ब्रrा की ही शक्ति है। किन्तु दोनों साथ दिखाई नहीं पडते हैं। जब तक माया है, ब्रrा ओझल है। ब्रrा दिखा, तो माया ओझल हो जाती है। प्रारब्ध फिर से शून्य हो जाता है। जीवन-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है।