Saturday 21 March 2009

द्वन्द्व

जीवन का सच यह भी है कि व्यक्ति भीतर कुछ और सोचता है, कुछ और करना चाहता है, और कर भी नहीं पाता। जीवन की अनेक मर्यादाएं-चाहे परिवार की हों, जाति-धर्म या समाज की हों, उसे पग-पग पर रोकती-टोकती रहती हैं। शायद इससे बडा जीवन का द्वन्द्व और कुछ भी नहीं है। हम में से लगभग हर एक के साथ ही ऎसा होता होगा। व्यक्ति स्वयं तो आत्म रूप में है, किन्तु उसका शरीर भिन्न है। आत्मा प्रकृति के नियमों से बंधा रहता है, अपने कर्म-फल भोगने के लिए शरीर में आकर रहता है। शरीर का निर्माण माता-पिता करते हैं। वे अपनी सामाजिक भूमिका के आधार पर, जाति-धर्म के आधार पर शिक्षित करते हैं। स्कूल वाले कुछ और ही पढाते रहते हैं। भीतर जीव का इन सबसे कोई लेना-देना नहीं होता। बाल्यकाल में शरीर असहाय होता है, जीव कुछ कर नहीं पाता। उसे निर्देश मानने होते हैं। जीव समझता सब कुछ है। उसके साथ कौन क्या व्यवहार करता है, उसे भी देखता-समझता है। अपनी स्मृति में भी रखता है। तभी तो बडा होकर इसी आधार पर सबके साथ व्यवहार करता है। अपने सम्पूर्ण वातावरण के प्रति जीव पूर्ण जाग्रत रहता है। वह तो सोने वाला तžव नहीं है। किन्तु बचपन में उसे जो कुछ रटाया जाता है, उसी के सहारे जीने के लिए अभ्यस्त हो जाता है। जो कुछ लक्ष्य वह साथ लेकर आया है, वह तो भीतर ही दबा रह जाता है। जो कुछ ईश्वर अंश उसमें रहता है, उसे भी प्रस्फुटित होने का अवसर नहीं मिलता। उसका स्वयं का कोई विकास ही नहीं हो पाता। इसके लिए तो उसे भीतर देखना पडेगा। स्वयं को खोजना पडेगा। नहीं तो वह भीतर कुछ सोचता रहेगा, बाहर में कुछ और ही जीता रहेगा। वह कुछ बनना चाहता है, मां-बाप उसे कुछ और ही बना देते हैं। वह अपना भाग्य तो साथ लाता है, कर्म-फल भी भोगता है, किन्तु भविष्य निर्माण के लिए अपने को स्वतंत्र नहीं पाता। जो धर्म मां-बाप का है, उसे वही अपनाना है। व्यवसाय भी अघिकांशत: पिता का ही रहता है। समाज, देश-काल के नियम-कायदे भी उसे बांधकर रखते हैं। शिक्षा के कारण उसकी बुद्धि में एक नया अहंकार पैदा हो जाता है। इसी के आधार पर वह प्रकृति को भी चुनौति देने को तैयार हो जाता है। उसे याद नहीं रहता कि वह भी प्रकृति का ही एक अंग है। प्रकृति ने ही उसे यह शरीर दिया है।
जीव की एक दुविधा यह भी होती है कि वह मानव देह में कहां से आया। यदि मानव देह से ही आया है, तब तो बडा अन्तर नहीं पडेगा। कुछ भाषा का, कुछ संस्कृति का प्रभाव नया हो सकता है। यदि किसी अन्य प्राणी की देह से आया है, तो उसके सामने स्थितियां विकट होती हैं। उसे तो प्राकृतिक आवाजों को पहचानने के अलावा कुछ भी नहीं आता। इसको मानव सभ्यता सिखाना माता के लिए कठिन कार्य होता है। आज माताएं कहां समझ पाती हैं कि जीव कहां से आया है। कहां उसे संस्कारित करने का प्रयास करती हैं। वे तो केवल महीने गिनती रहती हैं। उन्हें तो यह भी नहीं पता कि जीव सब कुछ सुन-समझ रहा है। जीव जैसा आया, वैसा ही बाहर आ जाता है। उसे शरीर का भेद समझ में कहां आता है। इसे भी वह पहले जन्म की तरह ही स्वच्छन्द रूप में भोग कर चला जाता है।


विवाह होने तक जीव अकेला भी रहता है। सृष्टा नहीं बन सकता। जीवन की पूर्णता तो युगल-सृष्टि ही है। वहां उसे मन की गहराइयों की समझ आती है। प्रेम की डोर में बंधता है। नए सिरे से सुसंस्कृत होता है। तब धीरे-धीरे उसका भीतर प्रवेश होता है। यदि उसे प्रेम नहीं मिला तो उसका अहंकार हावी हो जाता है। भीतर का स्वरूप ओझल हो जाता है। यही प्रभाव अन्य भोगों का भी होता है। भौतिक सुखों के घेरे में भी वह बाहर ही जी सकता है।


तब बाहर और भीतर का द्वन्द्व तो और भी मुखर हो उठता है। बाहरी जीवन के इतने सारे मुखौटे उसे कचोटते रहते हैं। गहरी प्रतिक्रिया चलती रहती है। अनेक अवसरों पर वह मुखर भी हो उठता है। यही अपराध बोध होता है और यह ही अपराध भी कराता है। वह स्वतंत्रता के लिए भी छटपटाता है, किन्तु समाज के नियम और निषेध उसे घेरे रहते हैं। चाहते हुए भी इच्छा से जी नहीं पाता। उसका मन ग्लानि से सदा भरा रहता है। मन कुछ कहता है, बुद्धि कुछ और कहती है। जीवन में दो धरातल बने रहते हैं। दोनों एक दूसरे के शत्रु जैसे। जीवन का सुख तो भीतर-बाहर के संतुलन में है। आत्मा और शरीर के बीच सामंजस्य बना रहना चाहिए। तभी तो जीव मानव रूप में जी सकता है। अपने कर्म और लक्ष्य को परिभाषित कर सकता है। दोनों के धरातल यदि भिन्न रहे तो सुख कैसे मिल सकता है।


जब तक शरीर और जीव का एकरूप नहीं बनता, तब तक जीव केवल प्रारब्ध को ही भोगता है। उसी के अनुरूप शरीर का उपयोग करता रहता है। यदि पूरी उम्र भी यह एकात्म भाव नहीं आ पाता, तो पूरी आयु प्रारब्ध भोगकर ही चला जाता है। अन्य प्राणियों की तरह। मानव जीवन की पहचान तो कर्म से होती है। भविष्य का भी निर्माण कर्म से होता है। कर्म भी वर्तमान का ही होना पडेगा। आज हम कोई कार्य करते हैं, तब वर्तमान में रहते कहां हैक् मन कहीं और ही भटक रहा होता है। स्मृतियां पीछा नहीं छोडतीं। भावी सुरक्षा के पहलू घेरे रहते हैं। वर्तमान में केवल वही व्यक्ति जी पाता है जिसे भीतर आत्मा का आभास रहता है। जिसे नए कर्म करने की, अज्ञात को खोजने की जिज्ञासा होती है। साधारण मनुष्य अज्ञात से इतना डरता है कि उधर जाना ही नहीं चाहता। आत्मानुभूति ही उसके धर्म को जाग्रत करती है। तब जाकर उसके अर्थ और काम जीवन को सार्थकता दे पाते हैं। प्रारब्ध पर विराम लगाकर नए भविष्य का निर्माण करने में जुट जाता है। तब मन द्वन्द्वातीत हो जाता है।
उदाहरण के लिए एक व्यक्ति संत बन गया। कुछ व्रत स्वीकार कर लिए। कुछ काल बाद उसका मन ऊब गया। वह फिर से भोग का जीवन जीना चाहता है। ऎसा करना एकाएक संभव भी नहीं होता। वह बाहर धर्म को अभिव्यक्त करता है। भीतर में उसका मन प्रतिरोध करता है। उसे धर्म अब स्वीकार नहीं है। मन तो वैसे भी बार-बार बदलता रहता है। सुबह कुछ अच्छा लगता है, शाम को भूल जाता है। चंचल कहा जाता है। यह स्थिति तब तक बनी रहेगी, जब तक उसकी चेतना जाग्रत नहीं हो जाती। जब तक उसे कोई बडी ठोकर नहीं लग जाती। वैसे गुरू तो अब मिलते ही नहीं, जो एक-एक शिष्य को अलग से तैयार कर सके। आने वाली पीढियों के आगे यही सबसे बडी त्रासदी होगी। उसके जीवन का यह द्वन्द्व कभी घटने वाला नहीं है।

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