Saturday 21 March 2009

माध्यम

बीच के क्षेत्र को मध्य कहते हैं। जहां दूरी दिखाई पडे, तो उसे पाटने के लिए माध्यम की आवश्यकता पडती है। वह साधन भी हो सकता है, व्यक्ति भी, अथवा प्रकृति का कोई तत्व भी। व्यवहार मूलत: दो तरह का होता है-प्रत्यक्ष एवं परोक्ष। परोक्ष व्यवहार में माध्यम की भूमिका प्रमुख हो जाती है। मध्यस्थता करने वाले को भी माध्यम ही कहा जाता है। इसी प्रकार जीवन को समग्रता से देखा जाए तो समझ में आएगा कि जीवन भी माध्यम के सहारे ही चलता है। चाहे कर्म के माध्यम से, भाग्य के माध्यम से अथवा निमित्त के माध्यम से।


मध्य क्षेत्र सदा गतिमान रहता है। दोनों आस-पास के पृष्ठ में रह जाते हैं। मन, प्राण और वाक् में प्राण ही मन और वाक् की गति का कारण बनता है। ऋक्-यजु-साम में भी यजु ही माध्यम बनता है। सत-रज-तम के त्रिगुण भी रज पर ही आधारित हैं। यदि जयपुर से दिल्ली जाना हो तो बस या रेल ही गतिमान माध्यम रहता है। जयपुर-दिल्ली तो पृष्ठभूमि में रहते हैं। लडके-लडकी की शादी की बात में मां-बाप भी पृष्ठभूमि में रहते दिखाई पडते हैं। दो लोगों के बीच संवाद में शब्द ही माध्यम है। वही गतिमान रहता है। माध्यम ही लक्ष्य तक पहुंचाने का हेतु बनता है। अत: माध्यम बनाए भी जाते हैं और संयोगवश बनते भी हैं। शरीर स्वयं एक माध्यम है। बुद्धि और मन भी माध्यम है। वायु एवं आकाश भी माध्यम का कार्य करते हैं।


माध्यम दो प्रकार के होते हैं। एक, माध्यम स्वयं कार्य करता है। दो, जब माध्यम स्वयं कार्य नहीं करता, कार्य निष्पत्ति के लिए मार्ग देता है। दोनों के भेद भी महत्वपूर्ण हैं। भूमिका भी भिन्न-भिन्न हैं। प्रकृति स्वयं अदृश्य रहती है। इसके कार्य भी अदृश्य रहते हैं। अनुभूति मात्र होती है। कार्यो का निष्पादन प्राणों के माध्यम से होता है। प्राण ही देवता है। कौन पकड पाया है प्राणों कोक् यही प्राण पिछली पीढी से आकर हमारे शरीर में होते हुए अगली पीढी का निर्माण (उत्पन्न) करते हैं। हम भी तो माध्यम ही हैं। किसी देवयोग से कोई इच्छा अनायास ही हमारे मन में उठती है और हम उस कार्य को बिना सोचे-समझे तुरन्त कर डालते हैं। प्रारब्ध भी हमसे इसी तरह कार्य कराता है। यही हाल विभिन्न ग्रहों के योग का है। जीवन में हम स्वयं बहुत बडे माध्यम का कार्य करते हैं।


आज तो रेडियो-टीवी-अखबारों को ही माध्यम कहा जाने लगा है। ये तो बहुत ही स्थूल माध्यम हैं। इनकी जानकारियां अन्तस को इतना प्रभावित भी नहीं करतीं। इतना मनोयोग से और लोकहित में कोई लिखता ही नहीं। जो जानकारियां इनसे प्राप्त होती हैं, वे बाहरी जीवन से जुडी होती हैं। समय के साथ बदलती भी जाती हैं। इनमें स्थायित्व नहीं होता। जीवन के शाश्वत सत्य तो आज धर्मो में भी तोड-मरोडकर पेश किए जाते हैं। इसीलिए जीवन विषैला होता जा रहा है। जहां तक बन पडे व्यक्ति को ऎसे माध्यमों से दूर ही रहना चाहिए। भले ही आकर्षित करते हों। मन में संकल्प कर लेना चाहिए कि विषपान नहीं करेंगे।


माध्यम चूंकि मध्य में होता है, अत: दो भिन्न धरातलों के बीच सेतु का कार्य भी करता है। मां को ही देख लें। बच्चे और पिता के बीच कितनी बार माध्यम बनती है। दो पीढियों के बीच की दूरी कम करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पत्नी जीवन में एक अतीव महत्वपूर्ण माध्यम होती है। पहले पति को प्रेम करना सिखाती है। उसे शान्त रहना सिखाती है। कालान्तर में वही पति के मन में विरक्ति का भाव भी पैदा करती है। ताकि वह ईश्वर की ओर मुड सके। प्रेम की दिशा बदलना उसके जीवन का बडा हेतु है। इसके बिना कोई व्यक्ति आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकता। पत्नी के माया भाव में ही यह शक्ति है। अन्य महिला यह कार्य नहीं कर सकती। वह तो विपरीत दिशा में ले जाएगी।
आत्मा और ईश्वर के बीच माया ही कार्य करती है। व्यक्ति भी माया भाव के कारण ही आत्मा से दूर जीता है। माया हमको माध्यम मानकर हमारा उपयोग करती है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपने पुरूषार्थ के सहारे माया से कितना संघर्ष कर सकते हैं। आवरण हटा सकते हैं। आजकल तो माध्यम भी नकारात्मक भाव में दिखाई देने लगा है। हम लोगों को अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए "मोहरा" बनाते हैं। व्यापार हो या शासन "मोहरों" के माध्यम से कार्य करवाना आज की परम्परा बन गई है। यह लोक शोषण का भाव है। माध्यम की अवधारणा में गरिमा का भाव है। टकराव टालने का भाव भी है। विकट परिस्थितियों को टालने के लिए संभ्रांत लोगों से मध्यस्थता कराई जाती रही है। दूत और दूतावास की भी यही अवधारणा है।


माध्यम की अवधारणा में एक महत्वपूर्ण पहलू है कत्ताü और निमित्त भाव का। माध्यम के कारण दोनों पक्षों का कत्ताüभाव जाता रहता है। अहंकार को स्फीत होने का अवसर नहीं मिलता। मध्यस्थता करने वाला भी निमित्त बनकर कार्य करता है। माध्यम जीवन में सहारा भी बनता है। हर व्यक्ति या वस्तु की सीमा होती है। हर व्यक्ति हर कार्य नहीं कर सकता। फूल में सुगंध है, फैला नहीं सकता। हवा माध्यम बनती है। पूरे वातावरण में सुगंध व्याप्त हो जाती है। सभी साधन, सुविधाएं हमारे माध्यम हैं। लेकिन भौतिक माध्यमों का मूल्य अघिक नहीं होता। जीवन को सार्थकता देने वाले माध्यम सर्वोपरि होते हैं। इनमें मां और गुरू सबसे महत्वपूर्ण हैं। मां जीवन का स्वरूप निर्माण करती है। गुरू गति प्रदान करता है। आज मां केवल बाहरी जीवन का निर्माण कर रही है। इसीलिए बच्चे बडे होकर दूर चले जाते हैं। मां को अकेले ही बुढापा काटना पडता है। गुुरू भीतर के विश्व से परिचय कराता है। स्वयं का स्वयं से परिचय कराता है। तभी जीवन सार्थक सिद्ध हो पाता है। इसके बिना जीवन में समष्टि भाव ही जाग्रत नहीं होता। अपने हित के आगे कोई देखना ही नहीं चाहता। यह संकुचन ही माया का बन्धन है। जीवन मुक्त होने के लिए है। इसके लिए प्रेम चाहिए। स्वार्थ में प्रेम नहीं रहता। देने के भाव से, सेवाभाव से, लोक कल्याण के भाव से प्रेम पल्लवित होता है। इसके लिए उपासना भी एक माध्यम बन जाती है। भक्ति भी प्रेम मार्ग ही है। पत्थर से भी प्रेम करना सिखा देती है। प्रेम के कारण ही पत्थर में भी भगवान दिखाई देता है।


हम जीवन में लाखों कार्य करते हैं। यह भी मानते हैं कि अपनी मर्जी से कर रहे हैं। क्या हम "मर्जी" को पैदा कर सकते हैंक् कभी नहीं। मर्जी तो मन में अपने आप पैदा होती है। जिस मर्जी को मन स्वीकार कर लेता है, वह मेरी मर्जी हो जाती है। मैं उस मर्जी को पूरा करने का माध्यम बन जाता हूं। मेरा जीवन तो मर्जी पैदा करने वाला चलाता है। कृष्ण कितने सहज भाव से कह गए-कत्ताüभाव मत रखो। निमित्त बन जाओ। सब कुछ मुझे अर्पण कर दो। गहराई से देखेंगे तो पता चल जाएगा कि हम कत्ताü बन ही नहीं सकते। चाहें तो स्वीकार कर लें अथवा नकार दें।

2 comments:

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

wah kya darshan hai, narayan narayan

AAKASH RAJ said...

आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है ............