Saturday 21 March 2009

प्रारब्ध

प्रारब्ध

व्यक्ति का कर्म ही भाग्य का निर्माण करता है। भविष्य में प्राप्त होने वाले कर्म-फल को ही भाग्य कहा जाता है। पिछले संचित कर्मो के फल, जो वर्तमान में भोगे जाते हैं, उन्हे प्रारब्ध कहते हैं। जीव ही सारे कर्म करता है और उनके फल भोगता है। जीव स्वयं में क्या हैक् ईश्वर का अंश है। अत: सैद्धान्तिक दृष्टि से ईश्वर ही कत्ताü है और भोक्ता भी है। मानव जीवन कत्ताü रूप है और शेष योनियां भोक्ता रूप होती हैं। अत: कर्म के सारे सिद्धान्त केवल मानव जीवन पर ही लागू होते हैं। जीवन कर्म से कभी मुक्त भी नहीं हो सकता। यह तो जीवन का पर्याय है। कर्म होगा तो फल भी मिलेगा। फल आने पर ही कर्म की समाप्ति होती है।


कर्म का क्षेत्र उतना ही बडा है जितना कि एक सौ वर्ष का जीवन काल। कर्म ही मानव जीवन का मूल आधार भी है। पर्याय भी कह सकते हैं। हर कर्म का भी तो कुछ आधार होना चाहिए। कर्म का आधार होता है कामना। मन में कामना उठेगी, तभी तो व्यक्ति कर्म करने को प्रेरित होता है। इच्छा के बिना भी कुछ कर्म होते हैं। ये प्राकृतिक कर्म होते हैं। आहार, निद्रा, विसर्जन आदि प्राकृतिक कर्म हैं। शरीर धारण किए रहने के लिए आवश्यक होते हैं। शरीर संचालन के लिए श्वास-प्रश्वास, धडकन, तापमान आदि शरीर के कर्म भी प्राकृतिक कर्म ही हैं। शरीर को निरोग रखने के लिए भी शरीर नित्य कर्म करता रहता है।


कामना से जुडे कर्म इनसे भिन्न होते हैं। कामना ही क्षुधा कहलाती है, जिसे व्यक्ति तृ# करना चाहता है। यही जीवन में माया का प्रवेश द्वार है। वही कामना पैदा करती है। जीवन को कामना के माध्यम से माया ही चलाती है। व्यक्ति कहता तो है कि वह अपनी मर्जी से जीता है ; किन्तु यह भी सच है कि वह अपने मन में कामना पैदा नहीं कर सकता। उसकी मर्जी कामना पूरी करने या न करने तक सीमित है। प्रकृति को ही माया कहते हैं। हमारा मन, हमारी बुद्धि प्रकृति (त्रिगुण) से आवरित रहती है। उसी के अनुरूप मन में इच्छा पैदा होती है। उसी के अनुरूप बुद्धि मार्ग-दर्शन करती है।


माया आत्मा के निर्माण के साथ ही जुड जाती है। हर जन्म और हर योनि में प्रकृति साथ रहती है। पिछले सारे कर्मो का लेखा-जोखा देखकर, कर्म-फल के अनुरूप हमारे मन में इच्छा पैदा करने का काम माया का है। हमने किसी को देखा, सुन्दर लगा। आगे चल दिए। फिर किसी को देखा और पांव ठिठक गए। कोई पिछला हिसाब इसके साथ बाकी रहा होगा। वरना यहां से भी आगे चले जाते। इसके भीतर बैठी आत्मा को दृष्टा की आत्मा ने पहचाना। राग-द्वेष, मैत्री-शत्रुता आदि का अवसर मिलते ही, प्रकटीकरण हो गया। और फिर आगे बढ गए। यह सारी इच्छाएं प्रारब्ध से जुडी थीं। स्वयं व्यक्ति का बडा योग इसमें नहीं होता। हमारे सौ साल के कलैण्डर में प्रारब्ध साथ ही रहता है। व्यक्ति की उम्र का कारक भी प्रारब्ध ही होता है।


शरीर के साथ पिछली पीढियों के भी कुछ कर्म-फल हमें प्रारब्ध के रूप में प्राप्त होते हैं। पुरूष को पुरूष पीढियों से, नारी को अपनी नारी पीढियों से, कुछ इष्ट मित्रों से। जीव के साथ प्रारब्ध अनेक पीढियों से चलता ही रहता है। हमारा सबका पिता सूर्य है। वहीं से सृष्टि की शुरूआत भी है।
सूर्य से ही हमको ज्योति, आयु और गौ (जीवन विद्युत/ सविता) की प्राप्ति होती है। सूर्य परमेष्ठी मण्डल/ लोक के चक्कर लगाता है। परमेष्ठी के चारों ओर तप: लोक होता है। इसी तप: लोक में परमेष्ठी के पांच अन्य उपग्रह भी चक्कर लगाते हैं। उनका सर्वाघिक प्रभाव आत्मा पर पडता है। इनमें गुरू, शनि और ब्रrाणस्पति प्रमुख हैं। गुरू-शनि तो हमारे सौर मण्डल में भी हैं। ब्रrाणस्पति का रूप मंगल में दिखाई पडता है। ये तीनों ही ग्रह कुण्डली के दो-दो भावों को प्रभावित करते हैं। अन्य ग्रह केवल एक ही भाव को प्रभावित करते हैं। यूं तो सभी ग्रह सातवें भाव को भी पूर्ण दृष्टि से देखते हैं। इसका अर्थ है कि सातवां भाव जीवन साथी का होता है। विवाह के बाद दोनों के प्रारब्ध को देखना भी आवश्यक हो जाता है। मूलत: सातवें भाव की कुण्डली ही जीवन साथी की कुण्डली होती है। जीवन साथी का प्रारब्ध ही व्यक्ति का पराक्रम बनता है। इसी प्रकार व्यक्ति का प्रारब्ध ही व्यक्ति के पराक्रम रूप में दिखाई पडता है। तभी तो पत्नी लक्ष्मी है।


कुण्डली में भाग्य का भाव नवां स्थान होता है। यही प्रारब्ध का स्थान भी है। भावी फल को भाग्य कहा है। किन्तु प्रारब्ध को समझने के लिए आत्मा के प्रतिनिघि, सूर्य के साथ गुरू, शनि एवं मंगल की उ“ा स्थितियों को मिलाकर देखना होता है। चूंकि परमेष्ठी लोक के इन उपग्रहों की जानकारी आम ज्योतिषी को नहीं रहती, अत: वह व्यक्ति के प्रारब्ध को समझ नहीं पाता। भाग्य तो वर्तमान जीवन के कर्म से बनता है। ये प्रारब्ध के साथ जुडता अवश्य है। तभी तो मानव जीवन में कर्म की प्रधानता है। व्यक्ति अपने प्रारब्ध को भी बदल सकता है और जीवन-मृत्यु के चक्र को भी।


जीवन में संस्कारों का महत्व इसी बात से समझ में आता है कि अच्छे संस्कार अच्छे काम की ओर व्यक्ति को ले जाते हैं। संस्कार से ही जीवात्मा मानव रूप व्यवहार करना सीखता है। ज्ञान अर्जन में जुटता भी है और ज्ञान का सही उपयोग भी कर सकता है। बिना संस्कार के जीव पशु-भाव में ही जीता है। केवल प्रारब्ध के सहारे। भाग्य निर्मित करने में सक्षम नहीं होता। तब गृहस्थाश्रम में माया जुडती है, इस निर्माण के लिए। सृष्टि रचना भी करवाती है और अपने प्रेम पाश के सहारे जीव को संस्कारित भी किया जाता है। वानप्रस्थ आते-आते माया तो सृष्टि क्रम से बाहर भी निकल जाती है। व्यक्ति सीख जाए तो ठीक है, वरना जो प्रारब्ध में लिखा है, फिर भोगने लगता है। सही अर्थो में सही गृहस्थाश्रम ही वानप्रस्थ के द्वार खोल सकता है। यहीं से व्यक्ति अपने व्यष्टि भाव को छोडकर समष्टि भाव में प्रवेश करता है। उसकी आंख प्रारब्ध से हटने लग जाती है। स्वयं के साथ-साथ वह दूसरों की चिन्ता भी करने लगता है। "स्व" का विस्तार करने लगता है। उसके मन की कामनाएं नए वातावरण के कारण बदलने लगती हैं। मन संकल्पवान होने लगता है। अर्थ की उपयोगिता भोग प्रधान नहीं जान पडती। उसकी आंखें धर्म का साक्षात्कार करना चाहती हैं।


जीवन क्या हैक् प्रारब्ध और भाग्य के बीच संघर्ष ही तो है। दोनों का ही कारक माया है। माया ने ही ब्रrा को ढका हुआ है। कामनाओं का घेरा ही माया है। व्यक्ति धर्म को समझते ही सबसे पहले अपने प्रारब्ध को तोडकर बाहर आ जाने का प्रयास करता है। प्रारब्ध ही माया है। माया हटी और ब्रrा प्रकट हुआ। दोनों एक ही हैं। माया ब्रrा की ही शक्ति है। किन्तु दोनों साथ दिखाई नहीं पडते हैं। जब तक माया है, ब्रrा ओझल है। ब्रrा दिखा, तो माया ओझल हो जाती है। प्रारब्ध फिर से शून्य हो जाता है। जीवन-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है।

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